ترجیع بند ۲۷ مولانا
۱ | ای دَرد دَهندهاَم دَوا دِهْ | تاریک مَکُن جهان، ضیا دِهْ | |
۲ | دَردِ تو دَواست و دلْ ضَریر است | آن چَشمِ ضَریر را صَفا دِهْ | |
۳ | نومید هَمیشود به هر غَم | نومید شونده را رَجا دِهْ | |
۴ | هر دیده که بَهرِ تو بِگِریَد | کُحْلَش کَش و نورِ مُصطَفی دِهْ | |
۵ | شُکرش دِهْ، وان گَهیش نِعْمَت | صَبرش دِهْ، وان گَهَش بَلا دِهْ | |
۶ | گَر جان زِجهانْ وَفا ندارد | از رَحمَتِ خویشَشانْ وَفا دِهْ | |
۷ | خویِ تو خوش است، هم خوشی بَخش | کارِ تو عَطاست، هم عَطا دِهْ | |
۸ | آن نِی که دَمِ تو خورْد روزی | بازَش زِدَمِ خوشَت نَوا دِهْ | |
۹ | این قُفلْ تو کردهیی بَرین دل | بِفْرست کلید و دِلْگُشا دِهْ | |
۱۰ | کَس طاقَتِ خَشمِ تو ندارد | این خَشمْ بِبَر عِوَض رِضا دِهْ | |
۱۱ | غَم مُنکِرِ بَس نَکیر آمد | زومان بِسِتان به آشنا دِهْ | |
۱۲ | رَحم آر بَرین فَغان و تَشْنیع | وَرْنه کُنَمَش قَرینِ تَرجیع | |
۱۳ | چون باخَبَری زِ هر فَغانی | زین حالَتِ آتشین، اَمانی | |
۱۴ | مِهْمانِ من آمدهست اندوه | خونْ ریز و دُرُشت میهمانی | |
۱۵ | یک لُقمه کُند هزارْ جان را | کِی داو دَهَد به نیم جانی | |
۱۶ | هر سیلیِ او چو ذوالْفَقاری | هر نُکتۀ او یکی سِنانی | |
۱۷ | زو تَلْخ شُده دَهانِ دریا | چون تَلْخ شُد آن چُنان دَهانی؟ | |
۱۸ | دریا چه بُوَد؟ که از نِهیبَش | پوشید کَبود، آسْمانی | |
۱۹ | ماییم سِرِشتۀ نَوازش | پَروَردۀ نازنین جهانی | |
۲۰ | خو کرده به سَلْسَبیل و تَسْنیم | با ساقیِ چون شِکَرسِتانی | |
۲۱ | با جمعِ شِکَرلَبانِ رَقّاص | هر لحظه عَروسیییّ و خوانی | |
۲۲ | این عیش و طَرَب دریغ باشد | کاشفته شود به اِمْتِحانی | |
۲۳ | حیف است که مَجْلِسِ لَطیفان | ناخوش شود از چُنین گِرانی | |
۲۴ | تَرجیعِ سِیوم رَسید یارا | هم بر سَرِ عیشْ آر ما را | |
۲۵ | در چاه فُتاد دل، بَرآرَش | بیچاره و مُنْتَظِر مَدارَش | |
۲۶ | وَرْ وَعده دَهیش تا به فردا | امروز بِسوزَد این شَرارَش | |
۲۷ | بَخْشایْ بَرین اسیرِ هِجْران | بر جانِ ضعیفِ بیقَرارَش | |
۲۸ | هرچند که ظالم است و مُجْرِم | مَظْلوم و شِکَسته دل شُمارَش | |
۲۹ | گشتهست چو لاله غَرقۀ خون | گشتهست چو زَعفَران عِذارَش | |
۳۰ | خواهد که به پیشِ تو بِمیرد | این است همیشه کَسب و کارَش | |
۳۱ | یاری دِگَری کجا پَسندد | آن را که خدا بُدهست یارَش؟ | |
۳۲ | آن را که بِخواندهیی تو روزی | مَسْپار به دستِ روزگارَش | |
۳۳ | هر چند به زیرِ کوهِ غَم مانْد | اندیشۀ توست یارِ غارَش | |
۳۴ | امسالْ چو ماه میگُدازد | میآید یادِ وَصلِ پارَش | |
۳۵ | راهی بِگُشا دَرین بیابان | ماهی بِنِما دَرین غُبارَش | |
۳۶ | گَر شَرح کُنم تمامِ پیغام | میمانَم از شراب و از جام |
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